
एक ऐसा पर्व जिसे यो तो 12 साल बाद मानते है लेकिन भारत में कुम्भ का महत्व फिर भी कम होने का नाम नहीं लेता.
संसार भर का सब कुछ अपने लघु रूप में भारत में विद्यमान है. तभी तो मशहूर है की “कुछ बात है की हस्ती मिटती नहीं हमारी”. यहाँ के अनैक दिव्य कार्य अत्यंत प्राचीन है. आज के वैज्ञानिक उसका काल क्रम भी निश्चित नहीं कर पाते है ऐसा होते हुए भी कुम्भ का महत्व कम नहीं होता. बल्कि बढ़ता जाता है.
कुम्भ महा पर्व किस वर्ष से आरम्भ हुआ इसका गणित कार्य करना अत्यंत कठिन कार्य है. इसी से अनुमान लगाया जा सकता है की भारतीय संस्कृति कितनी प्राचीन होगी. भारत की हर प्रथा अपने काल क्रमानुसार चलती आ रही है. भला आज के रिसर्च स्कालर इस बात का कैसे अनुमान लगा पाएँगे की कोई पर्व कब शुरू हुआ.
कुम्भ पर्व तो स्वयं एक जाग्रत इतिहास है जो की आज भी अपने जीवित रूप में विद्यमान है. वे लोग जो कुम्भ पर्व के दर्शन का सोभाग्य प्राप्त करते है. वे भी स्वीकार करते है. की इसका आदि नाता (Beginning) का पता नहीं लगाया जा सकता है. जिधर देखो उधर लाखो नर नारी गंगा में डुबकी लगते नजर आते है.
इसके ऐतिहासिक होने के कारणों में दो मुख्य कारण प्रमुख है.
(1)विष्णु योग मीमांसा और योग्सार संहिता और धर्म साधन के अनुसार गंगा की स्थिति और समय का कल क्रम निर्धारण और ऐतिहासिकता का विवेचन इन ग्रंथो में किया गया है.
देवताओ और असुरो के द्वारा समुद्र मंथन के दोरान अमृत के कुम्भ से निकले पर राक्षस उसे देवताओ से छिनने के लिए देवताऔ पर टूट पड़े लेकिन इंद्रदेवता का पुत्र घड़े को छिन कर ले गया. शुक्राचार्य ऋषि के कहने पर राक्षस उसके पीछे भागे.राक्षस पीछे आते देख कर वह भी भागने लगा यह भाग दोड़ 12 वर्ष तक चलती रही . इन 12 वर्षो में राक्षसों ने जयंत को 4 बार पकड़ा और उससे घड़ा छिनना चाहा लेकिन उसी समय सूर्य , चन्द्र और गुरु ने उन चारो स्थानों पर जयंत का साथ दे कर अमृत कुम्भ की रक्षा की. इस झपट मारी के दोरान अमृत की कुछ बूंदे उन चारो स्थानों पर गिरी वो चार स्थान थे हरिद्वार, प्रयागराज ,गोदावरी और अवंतिका (उज्जैन) का क्षेत्र इस रक्षा के दोरान गुरु सूर्य चंद्रमा जिन राशियों में थे उसी राशि में इन तीनो के होने पर अब तक उक्त चारो स्थानों पर अबतक कुम्भ महापर्व का स्नान होता है.
गुरु देव (ब्रहस्पति) ने राक्षसों से अमृत कुम्भ की रक्षा की , सूर्य ने कुम्भ को टूटने से बचाया और चंद्रमा ने अमृत को गिरने से बचाया , इस कारण इन तीनो ग्रहो का कुम्भ से विशेष नाता है.
(2) इसके अलावा आदि गुरु शंकराचार्य का भी कुम्भ महा पर्व से विशेष नाता है. ये आचार्य अपने विरोधियो को हराने के लिए भारत भर का भ्रमण कर रहे थे उनके इस कारण उनके अनुयाईयो की संख्या बढ़ रही थी आधी आचार्य ने अपने शिष्यों को आदेश किया की धर्म के प्रचार के लिए देश के कोने कोने में फ़ैल जाओ
शिष्य मंडली में निराशा फ़ैल गई उन्होंने आचार्य से प्रशन किया की इस तरह तो हम भगवान का दर्शन कभी भी नहीं कर पाएँगे यदि इसी काम में लगे रहे तो, और अपने सहयोगियों सन्यासियों से भी कभी नहीं मिल पाएँगे इस पर आदि गुरु शंकर आचार्य ने आदेश दिया की प्रति तीन वर्ष पश्चात वे लोग हरिद्वार, प्रयाग, गोदावरी,और उज्जैन, के कुम्भ पर्वो पर आप इकठ्ठा हो सकते हो.
अतः इस आदेश के बाद से शिष्य मंडली हर तीन वर्ष पश्चात इन स्थानों पर गंगा स्नान के बहाने अपने अपने अनुयाइयो से मिलने के लिए एकत्रित होने लगे.उन्प्रोक्त दोनो कथाए कुम्भ पर्व के साथ जुडी हुई है .ये सिर्फ कथाए है कोई मूल कारन नहीं, मूल कारन तो अज्ञात है.

कुम्भ का सांस्कृतिक महत्व
कुम्भ का महत्व उस युग से प्रारंभ हुआ है जब लोगो के पास आज की तरह वैज्ञानिक यंत्र नहीं थे पत्र , पत्रिकाए, कंप्यूटर, रेडिओ टीवी विज्ञापन नहीं हुआ करते थे,प्रचार के द्वारा किसी सभा सम्मलेन का आयोजन नहीं हो सकता था.
किन्तु इन सब साधनों के न होने के पश्चात भी सारा भारत एक था . जबकि भारत के अलावा संसार के अन्य देश संचारतन्त्र के आभाव में आपस में लड़ मर कट रहे थे.राज शाही घराने लोगो के ऊपर जुल्म ढाते थे. हमारे देश को ये पश्चिमी देशो के लोग लोग साधू सपेरो का देश कहते थे. धर्म के नाम पर जितनी मार काट अरबो और युरोपिअनो ने मचाई हमारे देश में तो ज्योतिष ने ही पूरे देश को ग्रहो का आदेश दिखा कर लोगो को कर्तव्य पथ पर चलने के लिए प्रेरित किया था. जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत ज्योतिष का आदेश ही सर्वोपरि होता है.
सांस्कृतिक रूप से भारत एक रह सका इसके पीछे हमारे देश के महा मनीषी ऋषियों का विशेष योगदान है. एक बार के एक यूरोपियन ने मालवीयजी से पूछ था की इतने विशाल जन समूह को इकठ्ठा करने का आयोजन कितने समाए पहले बनाया गया होगा, इसके प्रचार में भारत का कितना रुपया लगा होगा. उत्तर में महामना मालवीयजी ने एक ज्योतिषिय पंचांग को उठाकर उसमे लिखी एक लाइन (कुम्भ महापर्व हरिद्वार) दिखा कर कहा की तीन महीने लिखी गई इस पंक्ति ने ये लाखो की भीड़ जमा की है. इसके लिए कोई प्रचार न पैसा खर्च करना पड़ा ये सुनकर विदेशि सन्न रह गया था.
एकता का प्रतीक

कुम्भ भारत की एकता के साथ सामाजिक संगठन का भी प्रतीक है. धर्म , समाज , राजनेतिक दृष्टिकोण से ये महान राष्ट्र सदा एक रहा है. भोगोलिक भेद भाव भी कभी यहाँ नहीं रहा है. हमारे पूर्वजो ने कभी भी किसी भी कार्य में संकीर्ण दृष्टिकोण से विचार नहीं किया व् प्रत्येक परिस्थिति व्यापक विचार करते थे.उनके जीवन के प्रत्येक क्षण में धार्मिक समाजिक और सांस्कृतिक भावनाओ का मनवाय रहता था. धर्म अर्थ काम और मोक्ष ये जीवन का लक्ष्य थे.
वेद के सामान गंगा भी हमारे जीवन की सर्वतो मुखी उन्नति का प्रतीक है. इसी लिए हम पृथ्वी माता , गंगा माता, के साथ गो माता का उल्लेख करते है. प्राचीन काल से ही सैकड़ो मील पैदल चलकर सदाचार और संयम का पालन करते हुए सात्विकता के साथ तीर्थो पर पहुँचते थे.
कुम्भ का महत्व वे लोग भला क्या जाने जिन लोगो ने तीर्थो को अपनी वासना पूर्ति का स्थान बना रखा है. ऐसे लोग का कल्याण कैसे हो सकता है. जो तीर्थो के स्थान पर आकर भी अपनी दुष्प्रवृत्तियों का त्याग नहीं करते बल्कि वहा भी पापकर्म करते है. वे लोग तो निश्चय ही अनेक जन्मो के लिए नरक में जाएगा.
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